86. कामना और संकल्प छोड़ दें


प्रत्येक संस्कृति ने समाज में शांति के लिए ‘क्या करें और क्या न करें’ का विकास किया और न्याय प्रणाली के विकास के साथ, कुछ ‘क्या न करें’ दंडनीय अपराध बन गए हैं। आपराधिक न्यायशास्त्र में, अपराध में इरादतन उपस्थिति और निष्पादन की भूमिका से अपराध का निर्धारण होता है। इरादा अपराध के पीछे का विचार है और निष्पादन भौतिक पक्ष है। किसी भी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराने के लिए दोनों घटकों का प्रमाण आवश्यक है।

यदि हम इरादा को संकल्प और निष्पादन को कामना के रूप में लेते हैं, तो हम श्रीकृष्ण के कथन को समझ सकते हैं, ‘‘जिसके सम्पूर्ण शास्त्र सम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं’’ (4.19)

सामान्य तौर पर, समाज तब तक संतुष्ट रहता है जब तक कि कोई अपराध न हो, भले ही कोई आपराधिक इरादे से घूम रहा हो। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कामना तो छोडऩा ही चाहिए, साथ में संकल्प को भी त्याग देना चाहिए।

कानून के डर, संसाधनों की कमी या किसी की प्रतिष्ठा बनाए रखने जैसे विभिन्न कारणों से मनुष्य कामना छोड़ता है। लेकिन संकल्प बहुत गहरा है और जब तक यह जीवित रहता है तब तक कमजोर घड़ी में वासना में परिवर्तित होने की संभावना हमेशा बनी रहती है। इसलिए श्रीकृष्ण हमें न केवल काम को छोडऩे के लिए कहते हैं, बल्कि संकल्प को भी छोडऩे के लिए कहते हैं, जो इच्छाओं का संचालक है।

हमें बचपन से बार-बार कहा जाता है कि हममें शैक्षिक, आर्थिक और साथ ही व्यक्तिगत विकास को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प और इच्छा होनी चाहिए, जिसकी वजह से इस अस्तित्वगत सत्य को समझने की दिशा में हमारी प्रगति कठिन हो जाती है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इच्छा तो इच्छा ही होती है चाहे वह महान हो या हीन।

जब काम और संकल्प को छोड़ दिया जाता है, तो व्यक्ति निश्चल समाधि को प्राप्त करता है जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्ति है। ऐसी स्थिति से उत्पन्न होने वाले कर्म इसी जागरूकता से तप कर और शुद्ध हो जाते हैं।

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