89. स्वयं को मुक्त करना
अनासक्ति और वीतराग जैसे कुछ शब्द गीता का मूल उपदेश हैं।
जबकि आसक्ति और विरक्ति दो ध्रुव हैं, अनासक्ति का मतलब इन ध्रुवों को पार करना है।
इसी तरह, वीतराग न तो राग
है और न ही विराग लेकिन दोनों से परे है। ये ध्रुवीयताएं और कुछ नहीं बल्कि अहंकार
की झलक हैं और इस अहंकार को छोडऩे पर व्यक्ति सभी द्वंद्वों को पार कर जाता है। यह
अवस्था और कुछ नहीं बल्कि मुक्ति है।
इस सन्दर्भ में, श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जो मुक्त है, आसक्ति से रहित
है, ज्ञान में
स्थापित मन और यज्ञ के लिए कार्य करता है; उसके सारे कर्म
विलीन हो जाते हैं’’ (4.23)। ‘मैं’, हमारी संपत्ति; दोस्त और दुश्मन; पसंद और नापसंद; और विचार और
भावनाओं के साथ पहचान है। उन्हें छोडऩे से अस्थायी शून्यता आती है जिसकी वजह से
दर्द, भय, क्रोध और आक्रोश
पैदा होता है। इसलिए ‘मैं’ को छोडऩा कोई आसान काम नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि
यह सिर्फ स्वामित्व, पहचान और कर्तापन की भावना को छोडऩे के बारे में है, न कि रिश्तों, चीजों या लोगों
को। मुक्ति तभी आती है जब हम इस सूक्ष्म अंतर को जान लेते हैं।
जिस व्यक्ति ने ‘मैं’ का त्याग कर दिया है, उसके सभी
नि:स्वार्थ कर्म यज्ञ के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। यज्ञ का शाब्दिक अर्थ एक अग्नि
अनुष्ठान है जहां अग्नि को आहुति दिया जाता है। यहां इसे बलिदान के रूपक के रूप
में प्रयोग किया जाता है जहाँ कोई त्याग करता है और कोई ग्रहण करता है। हम आग को
आहुति देते हैं,
जो बदले में हमें
गर्मी देता है,
जो खाना पकाने, पानी को तरल रूप
में रखने और शरीर के तापमान को बनाए रखने जैसे उद्देश्यों के लिए जीवन में आवश्यक
है। मानव शरीर की क्रिया एक यज्ञ की तरह है जिसमें एक अंग देता है और दूसरा लेता
है और वे सभी आपस में एक दूसरे पर निर्भर हैं।
श्रीकृष्ण, इसलिए कहते हैं, अर्पण का कार्य, हवन, अग्नि, निर्वाहक सभी
ब्रह्म हैं और यहां तक कि प्राप्त गंतव्य या परिणाम भी ब्रह्म है (4.24)। अहंकार को
छोडऩा ही स्वयं को मुक्त करके ब्रह्म को पाना है।
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