110. द्वंद्वातीत से शांति
श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जिसको शास्त्र
संन्यास कहते हैं उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों का त्याग न करनेवाला कोई भी
पुरुष योगी नहीं होता’’ (6.2)। इससे पहले श्लोक 4.19 में यह कहा गया
था कि एक महापुरुष के कर्म कामना और संकल्प से मुक्त होते हैं
(कामसंकल्पवर्जिता:)।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘योग में आरूढ़
होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म
करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो
सर्वसंकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है (6.3)। जिस काल में न
तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में
सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है’’ (6.4)।
हमारी मान्यता है कि कर्म मनोवांछित कर्मफल प्राप्त करने से
प्रेरित होते हैं नहीं तो कोई कर्म क्यों करेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि
यदि हम किसी चीज के बारे में नहीं जानते हैं या उसका अनुभव नहीं किया है, तो इसका मतलब यह
नहीं है कि वह अस्तित्व में नहीं है। इस राह पर पहला कदम हमारे पिछले कर्मों के
अनुभवों का विश्लेषण करना है, जो सुखद कर्मफल के लिए किए गए थे, और उनमें से
अधिकांश कर्म से दु:ख मिले। दूसरे, कर्म के फल की अपेक्षा किए बिना छोटे-छोटे कर्म करना शुरू
करें, श्रीकृष्ण के
आश्वासन पर श्रद्धा के साथ कि ऐसे कर्म संभव हैं। अंत में, प्रशंसा और
आलोचना जैसे ध्रुवों को पार करना (द्वंद्वातीत होना) है, जिससे आनंद
प्राप्त होता है।
श्रीकृष्ण बार-बार निष्काम कर्म और इन्द्रिय विषयों के
प्रति अनासक्ति को सुझाते हैं। यह सुझाव हमें बाहरी दुनिया से जोडऩे और भौतिक
अस्तित्व सम्बन्धी बुनियादी निर्णय लेने के लिए इंद्रियों को केवल उपकरणों के रूप
में उपयोग करने के बारे में है। इससे इतर कोई भी आसक्ति कर्मबंधन है।
उदाहरण के लिए, जब हम किसी सुंदर वस्तु को देखते हैं और उसकी
सुंदरता की सराहना करके आगे बढ़ जाते हैं, तो यह अनासक्ति
है। उससे जुडऩे से उसे पाने की इच्छा पैदा होती है और बाद में प्रेरित कार्यों के
लिए अग्रसित करती है।
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