117. संयम की कला


 


कई वजहों से मस्तिष्क एक अद्भुत अंग है। इसकी विशेषताओं में से एक यह है कि यह दर्द महसूस नहीं करता क्योंकि इसके ऊतक में दर्द संचरित करने वाले नोसिसेप्टर नहीं होते हैं। न्यूरोसर्जन इस विशेषता का उपयोग मरीज के जागते समय सर्जरी करने के लिए करते हैं।

शारीरिक पीड़ा और सुख मस्तिष्क की तटस्थ अवस्था से तुलना का परिणाम हैं। ऐसी ही तटस्थ अवस्था मानसिक स्तर पर भी होती है जिससे तुलना की वजह से मानसिक पीड़ा और सुख का अनुभव होता है। यह पृष्ठभूमि हमें यह समझने में मदद करेगी जो श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जब योग के अभ्यास से संयमित मन स्थिर हो जाता है और जिसमें वह स्वयं को स्वयं में देखता है तब वह आत्मसंतुष्ट होता है (6.20)

मूल बात स्थिर होना है। यह सदा डगमगाते या अस्थिर मन को स्थिर करना है। इसे प्राप्त करने के लिए, श्रीकृष्ण संयम का सुझाव देते हैं। संयम का अर्थ भावनाओं का दमन या उनकी अभिव्यक्ति नहीं है। यह उन्हें जागरूकता के माध्यम से साक्षी बनकर देखना है जिसे हम बीती हुई स्थितियों का विश्लेषण करके आसानी से पा सकते हैं। अंत में, यह स्वयं को हर जगह स्वयं के रूप में देखना है।

एक बार जब हम संयम की इस कला में महारत हासिल कर लेते हैं, तो हम उस तटस्थ बिंदु या सर्वोच्च आनंद तक पहुंचने के लिए सुख और दु:ख की ध्रुवीयता को पार कर जाते हैं। इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जब वह उस परम आनंद को जान जाता है जो इंद्रियों की समझ से परे है और केवल बुद्धि द्वारा ही समझा जा सकता है तब एक बार स्थापित होने के बाद वह वास्तविकता से कभी नहीं डगमगाता है’’ (6.21)

यह परम आनंद इंद्रियों से परे है। उस अवस्था में, दूसरों की प्रशंसा या स्वादिष्ट भोजन आदि की आवश्यकता नहीं होती है। संयोग से, हम सभी इस आनंद का अनुभव निष्काम कर्म के क्षणों में या ध्यान के क्षणों में करते हैं। यह उन्हें पहचानने और प्रतिबिंबित करने के बारे में है।

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