134. खुद से प्रतिस्पर्धा
श्रीकृष्ण ने उल्लेख किया है कि चार प्रकार के भक्त उनकी
पूजा करते हैं; जिनमें कुछ अपनी
कठिनाइयों को दूर करने के लिए (आर्त), कुछ सफलता प्राप्त करने के लिए (अर्थार्थी), कुछ ज्ञान
प्राप्त करने के लिए (जिज्ञासु) और ज्ञानी (7.16)। वह ज्ञानी के बारे में विस्तार से बताते हैं और कहते हैं
कि ‘‘उनमें नित्ययुक्त मुझमें एकीभाव से स्थित अनन्य प्रेमभक्ति वाले ज्ञानी भक्त
अति उत्तम हैं, क्योंकि मुझको
तत्व से जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त
प्रिय है’’ (7.17)। वे कहते हैं कि
अनेक जन्मों में तत्वज्ञान को प्राप्त करके ज्ञानी पुरुष अंत में मुझ तक पहुंचता
है (7.19)।
आमतौर पर कई ‘जन्म’ की व्याख्या की जाती है कि हमें ज्ञानी
बनने के लिए कई जन्मों से गुजरना होगा, हालांकि इसका कोई कारण नहीं दिखता है। साधारण समझ के अनुसार
‘जन्म’ की व्याख्या हमारे भौतिक शरीर की उत्पत्ति
के रूप में की जाती है परन्तु ‘जन्म’ का अर्थ एक अन्य रूप में लेने से
स्पष्टता आएगी। यह हमारे आस-पास की किसी स्थिति या परिस्थिति का ‘जन्म’ हो सकता है
जो एक सतत प्रक्रिया है। ये अनुकूल या दर्दनाक हो सकते हैं लेकिन इन सभी में हमें
सिखाने की क्षमता है। यह इस बारे में है कि बिना उनसे द्वेष या प्रेम किए हम कितनी
जल्दी सीखते हैं।
श्रीकृष्ण ने पहले साष्टांग प्रणाम, पूछताछ और सेवा
के माध्यम से सीखने पर जोर दिया (4.34)। इन तीनों का उपयोग हमारे सामने आने वाली हर स्थिति के लिए, हमारे जीवन में
मौजूद लोगों के लिए और उन परिस्थितियों के लिए किया जा सकता है जिनसे हम गुजर रहे
हैं। उनमें से हरेक गुरु बन सकता है जब हम उनपर श्रद्धा रखते हैं। यह जागरूकता के
साथ अहंकार को त्यागकर वर्तमान को गुजरे हुए कल से और भविष्य को वर्तमान से बेहतर
बनाना है। ऐसा करने के लिए दूसरों से तुलना छोडक़र खुद से प्रतिस्पर्धा करनी
होगी।
यह प्रक्रिया हमें शाश्वत अवस्था अर्थात मोक्ष तक ले जा
सकती है, जहां जानने के
लिए कुछ भी नहीं बचता है और हर परिस्थिति एक आनंदमय नाटक बन जाएगी जो कि एक ज्ञानी
की स्थिति है। इसे हासिल करने की जिम्मेदारी खुद पर है।
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