137. ‘अ’ से ‘ज्ञ’ का मंत्र

 

हमारे जैसी भौतिक इकाइयां (व्यक्त) निरपवाद रूप से दो प्रकार की भ्रान्तियों से प्रभावित होती है। पहला, तीन गुणों से पैदा हुआ योग-माया है, जो अहंकार (अहम-कर्ता) की ओर ले जाता है जबकि कर्म गुणों के परस्पर प्रक्रिया से होता है।

दूसरा इच्छा और द्वेष की ध्रुवीयताओं द्वारा लाई गई भ्रान्ति है जो चीजों, लोगों और भावनाओं को प्राप्त करने की लालसा व कामना पैदा करती है या दूसरों के लिए घृणा उत्पन्न करती है। परन्तु श्रीकृष्ण के कथनानुसार यह इच्छा और द्वेष से प्रभावित हुए बिना साक्षी बनकर रहने के बारे में है। अहंकार और कामना एक दूसरे के पूरक हैं। जबकि अहंकार इच्छाओं को सही ठहराता है, इच्छाएँ, खासकर पूरी हुई इच्छाएँ अहंकार को बढ़ाती हैं।

इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं (7.29)। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित मुझे अंतकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं’’ (7.30)

दिलचस्प बात यह है कि श्रीकृष्ण भ्रान्ति (7.25 और 7.27) के तुरंत बाद मृत्यु और वृद्धावस्था की बात करते हैं क्योंकि ये भ्रान्तियाँ हमारे अंदर भय पैदा करती हैं जैसे कि इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने या अहंकार को चोट लगने का डर। लेकिन मृत्यु मूल भय है जो कई प्रकार के भय पैदा करता है और इस डर पर काबू पाने से हमें भ्रम से पार पाने में मदद मिलेगी, इसलिए, कई संस्कृतियां मन को नियंत्रित करने और सभी प्रकार के भय को दूर करने के लिए मृत्यु को वैराग्य के साधन के रूप में उपयोग करती हैं। श्रीकृष्ण ‘आश्रित’ होने की सलाह देते हैं जो परमात्मा की शरण लेना है जिससे परमात्मा को समग्रता से समझ सकें।

आश्रित’ की स्थिति एक बुद्धिमान व्यक्ति की तरह है जो सक्रिय रूप से सभी परिणामों को अपनी प्रार्थनाओं के बदले में भगवान का आशीर्वाद समझकर स्वीकार करता है। उनका मंत्र ‘अ’ से ‘ज्ञ’ तक के अक्षरों को पढऩा और परमात्मा से अनुरोध करना कि जिस तरह से परमात्मा को ठीक लगे, वे उन्हें एकत्रित करें - क्योंकि जो कुछ भी आवश्यक है और जो कुछ भी होता है, इन शब्दांशों में अंतर्निहित है।


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