140. कर्म क्या है


 

अर्जुन का अगला प्रश्न है कि ‘कर्म क्या है’ जो श्रीकृष्ण के इस आश्वासन के प्रत्युत्तर में है कि जब कोई उनकी शरण में आकर मोक्ष के लिए प्रयास करता है तो ‘अखिलम-कर्म’ यानी कर्म, अकर्म और विकर्म के सभी पहलुओं को समझ पाता है (7.29)। इस पर श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं, ‘‘भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला जो त्याग है, वह कर्म  कहा गया है (भूत-भाव-उद्भव-करो विसर्ग:)’’ (8.3)। यह समझने के लिए एक कठिन बात है और व्याख्याएं स्पष्टता देने के बजाय मुद्दे को और जटिल बनाती हैं। कर्म की सामान्य व्याख्याएं इसे श्रेष्ठ कर्म, सृजन या यज्ञ इत्यादि कहते हैं, लेकिन ये सभी श्रीकृष्ण जो कह रहे हैं उससे परे हैं।

जबकि ‘कर्म’ के संबंध में श्रीकृष्ण का उत्तर ‘होने’ (ड्ढद्गद्बठ्ठद्द) के स्तर पर है, हम इसे ‘करने’ के स्तर पर व्याख्या करते हैं। इसलिए ‘हम’ जो करते हैं वह ‘कर्म’ है की हमारी यह समझ अपर्याप्त है। चूँकि अलग-अलग लोग अलग-अलग समय पर अलग-अलग काम करते रहते हैं, जबकि कोई भी परिभाषा प्रत्येक इकाई के लिए व हर कालखण्ड में मान्य होनी चाहिए - चाहे वह अतीत हो जब मनुष्य मौजूद नहीं थे, वर्तमान या भविष्य।

श्रीकृष्ण ने ‘विसर्ग’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ छोडऩा या त्याग है। सृजन करने हेतु सक्षम ऊर्जा का त्याग ही कर्म है। निकटतम उदाहरण बड़ी मात्रा में बिजली (ऊर्जा) ले जाने वाली उच्च वोल्टेज ट्रांसमिशन लाइन है, जिसका एक भाग अलग किया जाए तो वह दिशा परिवर्तन ही कर्म होता है। असंख्य विद्युत उपकरणों को सक्रिय करना कर्मफल है।

एक साधारण प्रश्न यह उठता है कि यदि इस सादृश्य को हमारे अस्तित्व पर लागू किया जाए, तो कर्म अनंत ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से अल्प मात्रा में ऊर्जा को निकालना है। ऊर्जा कौन खींचता है? वोल्टेज में अंतर की तरह, विभिन्न इकाइयों द्वारा धारण किए गए तीन गुणों में अंतर से श्रद्धा की केबल के माध्यम से ऊर्जा बहती है। जबकि यह अपने आप होता है, भ्रान्ति के कारण हम स्वयं को ‘विसर्ग’ की प्रक्रिया से जोडक़र खुद को कर्ता मानने लगते हैं जो कि हम नहीं हैं। इसके अलावा एक बार ऊर्जा खींच ली जाती है, तो उसके परिणाम यानी कर्मफल पर किसी का नियंत्रण नहीं होता (2.47)

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