158. सृष्टि का मूल

 

परमात्मा की अनेक विभूतियों में वर्षा एक है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने कटोरे को सीधा रखकर इस वर्षा रूपी आशीर्वाद को प्राप्त करते हैं। इसके अलावा, बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी विभूति जैसे वर्षा को देखते हैं तो परमात्मा को महसूस करते हैं और श्रीकृष्ण इसे 'उनके साथ एक होना' कहते हैं। इन झलकियों में बुद्धि, ज्ञान, विचारों में स्पष्टता, क्षमा, सत्यता, इंद्रियों और मन पर नियंत्रण, सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु, भय और साहस, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश शामिल हैं (10.4 और 10.5) नेतृत्व और प्रबंधन पर समकालीन रचनाएं इन्हीं झलकियों के इर्द-गिर्द घूमते है। इसका मतलब है सकारात्मक रूप से अच्छे-बुरे और पसंद-नापसंद हालातों में प्रभु को देखना है।

 

श्रीकृष्ण कहते हैं कि, "जो मेरी विभूति और योगशक्ति को तत्त्व से जानते हैं, वे लोग अविचल भक्तियोग के माध्यम से मुझमें एकीकृत हो जाते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है" (10.7) श्रीकृष्ण 'तत्त्व' शब्द को अस्तित्वगत स्तर पर सत्य को 'जानने' के लिए उपयोग करते हैं, कि केवल रटने के लिए। इस अनुभूति से विभाजन मिटकर एकता प्राप्त होती है जो परमात्मा के साथ एक होना है।

 

उत्पत्ति के बारे में अर्जुन की समझ का उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं, "सात महर्षिगण और उनसे पूर्व चार महर्षि और चौदह मनु सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं तथा संसार में निवास करने वाले सभी जीव उनसे उत्पन्न हुए हैं" (10.6) यह इंगित करता है कि करुणामय श्रीकृष्ण कई बार अर्जुन के स्तर पर आकर विषयों को समझाते हैं।

 

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "मैं समस्त सृष्टि का मूल हूँ। सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है। जो बुद्धिमान लोग इसे पूरी तरह से जानते हैं, वे अत्यंत भक्ति के साथ मेरी उपासना करते हैं" (10.8) संक्षेप में, वह ही मूल हैं, चाहे अर्जुन की समझ हो कि हम सात ऋषियों से उत्पन्न हुए हैं या आज की प्रचलित समझ कि बिग बैंग ही हमारा मूल है।

 


Comments

Popular posts from this blog

139. ‘ब्रह्म’ की अवस्था

92. स्वास के माध्यम से आनंद

105. चिरस्थायी आनंद