159. ज्ञान का प्रकाशमान दीपक


 

श्रीकृष्ण कहते हैं, "मेरे भक्त अपने मन को मुझमें स्थिर कर अपना जीवन मुझे समर्पित करते हुए सदैव संतुष्ट रहते हैं। वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए और मेरी महिमा का गान करते हुए अत्यंत आनन्द और संतोष की अनुभूति करते हैं" (10.9) यह प्रभु का आश्वासन है कि उनके भक्त संतुष्ट और आनंदित रहते हैं।

 

श्रीकृष्ण का 'मैं' उन सभी संभावनाओं को समाहित करता है जिनके बारे में हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, जबकि हमारे 'मैं' में विभाजन है क्योंकि हम इस बात में भेद करते हैं कि क्या हमारा है और क्या नहीं। उनके भक्त वे हैं जिनके लिए विभाजन समाप्त होकर एकता प्राप्त हो गई। ऐसे भक्त जब भी बातचीत करते हैं और जो भी बोलते हैं, वह निश्चित रूप से भगवान के बारे में ही होता है क्योंकि वे हर जगह उन्हीं को देखते हैं। इसके विपरीत, गैर-भक्त चीजों, लोगों और स्थितियों को अच्छा या बुरा के रूप में विभाजित करते हैं। इस विभाजन की वजह से उनमे राग-द्वेष पैदा होता है। सांख्य योग के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण ने 'योग: कर्मसु कौशलम' का उल्लेख किया है (2.50) यह दर्शाता है कि समभाव के योग में हम जो भी करते हैं वह सामंजस्यपूर्ण होता है। इसी प्रकार भक्तियोग में हर जगह और हर चीज में भगवान दिखाई देते हैं।

 

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "उन निरन्तर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तों को मैं वह तत्त्व-ज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझे पा सकते हैं (10.10) उनके प्रति करुणा से, मैं उनके हृदयों में वास करता हूँ और उनके अज्ञान जनित अंधकार को ज्ञान के प्रकाशमान दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ” (10.11)

 

हमारे लिए प्रेम तब उत्पन्न होता है जब कुछ शर्तें पूरी होती हैं परन्तु भगवान की कृपा असीमित होती है। जबकि बिना शर्त वाला प्रेम करुणा है, सशर्त प्रेम अज्ञानता है। ज्ञान के दीपक का उपयोग करके सशर्त प्रेम से बिना शर्त के प्रेम की ओर बढ़ना अंधकार से प्रकाश की ओर जाने जैसा है। श्रद्धा प्रकाश की दिशा में पहला कदम है जो प्रकाश को देखने के लिए धीरे-धीरे आंखें खोलने जैसा है। यह हमारे मन में विभाजनों को दूर करने जैसा है। जब हमारा प्रेम बिना शर्त वाला हो जाता है, तो हम सर्वसमावेशी परमात्मा से जुड़ जाते हैं।

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