विश्वरूप के दांतों के बीच सभी योद्धाओं को पिसते हुए देखकर,
अर्जुन ने श्रीकृष्ण के बारे में विस्तार से जानने के लिए पूछा कि वह वास्तव में कौन हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह महाकाल हैं जो इस समय लोकों को नष्ट करने में प्रवृत्त हैं। तुम्हारे युद्ध में भाग नहीं लेने से भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के सभी योद्धा मारे जाएंगे (11.32)। वह आगे कहते हैं कि तुम्हारे शत्रु मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं और तुम केवल निमित्त-मात्र हो (11.33)। द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह तथा अन्य योद्धा पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं,
इसलिए तुम युद्ध करने के लिए व्यथित मत हो (11.34)।
अर्जुन की व्यथा का मूल कारण उसकी यह धारणा है कि वर्तमान संदर्भ में वह कर्ता या मारने वाला है। यह अहम् कर्ता (मैं कर्ता हूँ) या अहंकार है। वह यह कहकर इसे उचित ठहराने की कोशिश करता है कि राज्य के लिए अपने शिक्षकों और रिश्तेदारों की हत्या करना उचित नहीं है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के भ्रम को तोड़ते हुए उसे भविष्य की एक झलक दिखाई जहां सभी योद्धा मौत के मुंह में प्रवेश कर रहे हैं। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन के भाग नहीं लेने पर भी उनमें से कोई भी जीवित नहीं रहेगा और अर्जुन सिर्फ एक निमित्त-मात्र है।
अहंकार के कारण हम खुद को कर्ता,
उपलब्धि हासिल करने वाले, जानने वाले आदि समझते हैं। इसी अहंकार की वजह से हम दूसरों को भी कर्ता मानते हैं। इसके परिणामस्वरूप स्वयं से और दूसरों से अपेक्षाएं पैदा होती हैं जो अंततः दुःख का कारण बनती हैं। सर्वशक्तिमान के हाथों में एक उपकरण यानी निमित्त-मात्र होना कर्तापन के भाव के विपरीत है।
श्रीकृष्ण ने शाश्वत अवस्था के लिए कई शब्दों का प्रयोग किया जैसे नित्यतृप्त,
वीतराग जो राग और विराग से परे है, अनासक्ति जो आसक्ति और विरक्ति से परे है, कर्मफल की आशा किये बिना कर्म करना अदि। निमित्त-मात्र आनंद की उसी शाश्वत अवस्था का एक और नाम है।
यदि भगवद गीता को एक शब्द में वर्णित किया जा सकता है तो वह निमित्त-मात्र है। अहंकार (संघर्ष)
से निमित्त-मात्र (समर्पण) तक की यात्रा ही गीता का मूल सन्देश है। जब निमित्त-मात्र को गहरे स्तर पर आत्मसात किया जाता है तो कुछ भी गंभीर, तनावपूर्ण या डरावना नहीं रहता।
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