22. संतुलन परमानंद है


गीता (2.14) के आरंभ में श्रीकृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों का बाह्य विषयों से मिलन, सुख और दुख का कारण बनता है। वह अर्जुन से उन्हें सहन करने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे अनित्य हैं। समकालीन दुनिया में इसे ‘यह भी बीत जाएगा’ के रूप में जाना जाता है। यदि यह अनुभवात्मक स्तर पर विकसित किया जाता है, तो हम इन ध्रुवों को पार कर सकते हैं और उन्हें समान रूप से स्वीकार करने की क्षमता रख सकते हैं।

पांच इंद्रियां हैं जैसे - दृष्टि, श्रवण, घ्राण, स्वाद और स्पर्श। उनके संबंधित भौतिक अंग आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हैं। संवेदी भाग मस्तिष्क के वे भाग होते हैं जो संबंधित अंगों के संकेतों को संसाधित करते हैं।
हालाँकि, इन इंद्रिय यंत्रों की बहुत सी सीमाएँ हैं। उदाहरण के लिए आँख, यह केवल प्रकाश की एक विशेष आवृत्ति को संसाधित कर सकती है जिसे हम दृश्यमान प्रकाश कहते हैं। दूसरा, यह प्रति सेकंड 15 से अधिक छवियों को संसाधित नहीं कर सकती है और यही चलनचित्र के निर्माण का आधार है जो हमें स्क्रीन पर देखने का आनंद देती है। तीसरा, किसी वस्तु को देखने में सक्षम होने के लिए उसे न्यूनतम मात्रा में रोशनी की आवश्यकता होती है। इंद्रियों की ये सीमाएँ, सत्य या स्थायी और असत्य या अस्थायी के बीच अंतर करने की हमारी क्षमता में बाधा डालती हैं और हमें रस्सी को एक कुंडली मारे बैठे साँप के रूप में अनुभव कराती हैं।

यहां तक कि मस्तिष्क में इन उपकरणों के संवेदी हिस्से भी उपकरणों की सीमाओं से बंधे हुए हैं। दूसरा, वे बचपन के दौरान उनके साथ किए गए व्यवहार से भुगतते हैं। इसका परिणाम प्रेरित धारणा होती है जिससे हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं।

सत्य को देखने में असमर्थता और असत्य की ओर बढऩे की प्रवृत्ति का परिणाम दुख होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं (2:15) कि जब हम सुख और दुख में संतुलन बनाए रखते हैं, तो हम अमृत के पात्र होते हैं, जो कि यहां और अभी मुक्ति है।

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