25. अहंकार जाने पर मिलती है ‘मंजिल’

श्रीकृष्ण कहते हैं (2.29) कुछ इस (आत्मा) को चमत्कार के रूप में देखते हैं, कुछ इसे चमत्कार के रूप में बोलते हैं, अन्य लोग इसे चमत्कार के रूप में सुनते हैं, और फिर भी इसे कोई नहीं जानता है।

‘कोई नहीं’ एक प्रेक्षक को संदर्भित करता है जो प्रेक्षित (आत्मा) को समझने के लिए अपनी इंद्रियों का उपयोग कर रहा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब तक इन दोनों के बीच दूरी है, तब तक प्रेक्षक आत्मा को नहीं समझ सकता है।

एक बार एक नमक की गुडिय़ा समुद्र का पता लगाना चाहती थी और उसने अपनी यात्रा शुरू की। प्रचंड तरंगों के माध्यम से यह समुद्र के गहरे हिस्सों में प्रवेश करती है और धीरे-धीरे इसमें घुलने लगती है। जब तक यह सबसे गहरे भाग में प्रवेश करती है, तब तक यह पूरी तरह से घुल जाती है और समुद्र का हिस्सा बन जाती है। कहा जा सकता है कि यह स्वयं सागर बन गई है और नमक की गुडिय़ा अब एक अलग इकाई नहीं है। प्रेक्षक (नमक की गुडिय़ा) प्रेक्षित (महासागर) बन गयी है, जो अनिवार्य रूप से विभाजन को समाप्त कर एकता लाना है।
नमक की गुडिय़ा हमारे अहंकार के समान है, जो हमेशा हमें अपनी संपत्ति, विचारों और कार्यों के जरिये वास्तविकता से अलग रखने की कोशिश करता है। अनिवार्य रूप से कोई भी व्यक्ति ‘कोई नहीं’ या सामान्य नहीं रहना चाहता है।

लेकिन यात्रा एकता और एकात्मकता की है; और यह तभी होता है जब अहंकार नमक की गुडिय़ा की तरह नहीं रह जाता है, जिसका अर्थ है कि हमारे पास जो कुछ भी है, वास्तु और विचार, दोनों को दांव पर लगा देना। यह वह यात्रा है जहाँ मंजिल उस चरण में पहुँच जाती है जहाँ हम (अहम्) खत्म हो जाता है; जहां मैं, मेरा छोडऩे योग्य उपकरण हैं, न कि पहचान के।

सुख-दुख के ध्रुवों के शिखर पर हमें निर-अहंकार की झलक मिलती है। बोध के इन क्षणों में, हमें इस बात की झलक मिलती है कि हम क्या हैं और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या जानते हैं, हम क्या करते हैं और हमारे पास क्या है।

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