51. घृणा भी एक बंधन है
हम किसी स्थिति, व्यक्ति
या किसी कार्य के
परिणाम के लिए तीन
में से एक नामांकन
करते हैं: शुभ, अशुभ
या कोई नामांकन नहीं।
श्रीकृष्ण इस तीसरी अवस्था
का उल्लेख करते हैं और
कहते हैं (2.57) कि एक बुद्धिमान
व्यक्ति वह है जो
शुभ की प्राप्ति पर
$खुशी से नहीं भरता
है और न ही
वह अशुभ से घृणा
करता है। वह हमेशा
बिना आसक्ति के रहता है।
इसका तात्पर्य यह है कि
स्थितप्रज्ञ नामांकन को छोड़ देता
है (2.50) और तथ्यों को
तथ्यों के रूप में
लेता है, क्योंकि नामांकन
सुख और दुख की
ध्रुवीयताओं का जन्मस्थान है।
यह श्लोक कठिन है क्योंकि
यह नैतिक और सामाजिक संदर्भों
में भी तथ्यों को
तुरंत शुभ या अशुभ
के रूप में चिन्हित
करने की हमारी प्रवृत्ति
के विपरीत है। जब कोई
बुरे के रूप में
नामांकित किए गए किसी
स्थिति या व्यक्ति का
सामना करता है, तो
घृणा और विमुखता स्वचालित
रूप से उत्पन्न होती
है। दूसरी ओर, स्थितप्रज्ञ इसे
नामांकित नहीं करता है
और इसलिए उनके लिए नफरत
का सवाल ही नहीं
उठता है। इसी प्रकार
शुभ होने पर स्थितप्रज्ञ
प्रसन्न भी नहीं होता
है।
उदाहरण
के लिए, हम सभी
समय के साथ उम्र
बढऩे की प्राकृतिक प्रक्रिया
से गुजरते हैं जब सुंदरता,
आकर्षण और ऊर्जा खो
जाती है। ये केवल
प्राकृतिक तथ्य हैं, लेकिन
अगर हम उन्हें अप्रिय
या बुरा कहते हैं,
तो यह नामांकन दुख
लाएगा। चोट या बीमारी
के मामले में भी ऐसा
ही होता है, जहांॅ
इन्हें बुराई के रूप में
नामांकित करने से दुख
होता है। निश्चित रूप
से, यह न तो
इनकार है और न
ही बढ़ा चढ़ा कर
प्रस्तुत करना है।
स्थितप्रज्ञ
एक शल्य चिकित्सक (सर्जन)
की तरह स्थितियों को
संभालता है, जो जांच
के दौरान सामने आए तथ्यों के
आधार पर शल्य चिकित्सा
(सर्जरी) करता है। यह
एक सुपर-कंडक्टर की
तरह है जो पूरी
बिजली को गुजारती है।
हम परिस्थितियों, लोगों या कर्मों से
या तो जुड़ जाते
हैं या उनसे दूर
रहते हैं। जुडऩे को
आसक्ति समझना आसान है, लेकिन
दूर रहना भी एक
प्रकार की आसक्ति है,
परन्तु घृणा के साथ।
जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि
स्थितप्रज्ञ आसक्ति रहित है, तो
उनका अर्थ है कि
वे आसक्ति और घृणा दोनों
को छोड़ देते हैं।
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