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Showing posts from August, 2023

92. स्वास के माध्यम से आनंद

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मानव शरीर में कुछ गतिविधियां जैसे दिल की धडक़न स्वचालित होती है , हालांकि वे एक निर्धारित लय का पालन जरूर करती हैं जबकि कुछ गतिविधियों जैसे लिम्बिक सिस्टम को नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन सांस अद्वितीय है क्योंकि यह स्वचालित है और इसे नियंत्रित भी किया जा सकता है। यज्ञ रूपी नि:स्वार्थ कर्म और सांस के सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण कहते हैं , कुछ लोग प्राण यानी अंदर आने वाली सांस को अपान यानी बाहर जाने वाली सांस में और अपान को प्राण में बलिदान के रूप में पेश करते हैं ; कुछ प्राण और अपान को रोककर प्राणायाम में लीन हो जाते हैं ( 4.29) । सांस की अवधि और गहराई मन की स्थिति को दर्शाती है। उदाहरण के लिए , जब हम क्रोधित होते हैं तो हमारी सांस अपने आप तेज और हल्की हो जाती है। इसके विपरीत अपनी सांसों को धीमी और गहरी बनाकर हम अपने क्रोध पर नियंत्रण कर सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सांस को नियंत्रित करके मन को नियंत्रित किया जा सकता है जिसने ध्यान और प्राणायाम की कई तकनीकों को जन्म दिया। भगवान शिव ने पार्वती से 112 ध्यान के तकनीकों की व्याख्या करते हुए लगभग 16 तकनीकों का उल्ल

91. स्वयं का अध्ययन

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‘ मन में आग’ होने का अर्थ है भौतिक दुनिया में अपनी इच्छाओं , रुचियों और कर्तव्यों का पालन करने के लिए ऊर्जा और उत्साह से भरा होना। जब ऐसी ऊर्जा का उपयोग आत्म-साक्षात्कार के लिए किया जाता है तो इसे योग-अग्नि कहा जाता है। इस सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि ,  ‘‘ दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं’’ ( 4.27) । दैनिक जीवन में हम परमात्मा को सुंदर फूल और स्वादिष्ट भोजन जैसी इंद्रिय वस्तुएं चढ़ाते हैं। यह श्लोक हमें इससे परे ले जाता है और कहता है कि यज्ञ स्वाद , सौंदर्य या गंध जैसी इंद्रिय गतिविधियों का चढ़ावा देना  है , न कि केवल इंद्रिय वस्तु। इन्द्रियाँ विषयों के प्रति आसक्ति के द्वारा हमें बाह्य जगत से जोड़ती रहती हैं और जब इन इन्द्रियों की बलि दी जाती है , तो विभाजन समाप्त हो जाता है व एकता प्राप्त हो जाती है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं , ‘‘ कई पुरुष द्रव्य संबन्धी यज्ञ करने वाले हैं , कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं , तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने व

90. बलिदान का बलिदान करना

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यज्ञ बलिदान या निस्वार्थ कार्यों का प्रतीक है। इस सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि , कुछ योगी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं ; अन्य लोग बलिदान को ब्रह्म की अग्नि में बलिदान करते हैं ( 4.25) । जागरूकता के बिना जीने वाले के लिए , जीना सिर्फ चीजों को इकट्ठा करना और उन्हें संरक्षित करना है। जीवन का अगला चरण चीजों , विचारों और भावनाओं का त्याग है। अहंकार के बीजों को मन की उपजाऊ भूमि पर बोने के बजाय आग में बलिदान करने जैसा है। तीसरे चरण में बलिदान का ही बलिदान करना है , यह महसूस करते हुए कि वे सभी ब्रह्म यानी परमात्मा हैं। यह कहा जा सकता है कि मन उन्मुख कर्मयोगी कर्म की तलाश में रहता है और उसके लिए यज्ञ करना ही मार्ग है। बुद्धि उन्मुख ज्ञानयोगी शुद्ध जागरूकता के बारे में है और वह बलिदान को ही बलिदान करता है। जबकि पहला अनुक्रमिक है , बाद वाला एक घातीय या लम्बी छलांग है , लेकिन दुर्लभ है। हालाँकि , दोनों रास्ते एक ही मंजिल की ओर ले जाते हैं। श्रीकृष्ण इस वास्तविकता को इंद्रियों के सन्दर्भ में समझाते हैं और कहते हैं कि ‘‘अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयमरूप

89. स्वयं को मुक्त करना

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अनासक्ति और वीतराग जैसे कुछ शब्द गीता का मूल उपदेश हैं। जबकि आसक्ति और विरक्ति दो ध्रुव हैं , अनासक्ति का मतलब इन ध्रुवों को पार करना है। इसी तरह , वीतराग न तो राग है और न ही विराग लेकिन दोनों से परे है। ये ध्रुवीयताएं और कुछ नहीं बल्कि अहंकार की झलक हैं और इस अहंकार को छोडऩे पर व्यक्ति सभी द्वंद्वों को पार कर जाता है। यह अवस्था और कुछ नहीं बल्कि मुक्ति है। इस सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण कहते हैं , ‘‘ जो मुक्त है , आसक्ति से रहित है , ज्ञान में स्थापित मन और यज्ञ के लिए कार्य करता है ; उसके सारे कर्म विलीन हो जाते हैं’’ ( 4.23) । ‘मैं’ , हमारी संपत्ति ; दोस्त और दुश्मन ; पसंद और नापसंद ; और विचार और भावनाओं के साथ पहचान है। उन्हें छोडऩे से अस्थायी शून्यता आती है जिसकी वजह से दर्द , भय , क्रोध और आक्रोश पैदा होता है। इसलिए ‘मैं’ को छोडऩा कोई आसान काम नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि यह सिर्फ स्वामित्व , पहचान और कर्तापन की भावना को छोडऩे के बारे में है , न कि रिश्तों , चीजों या लोगों को। मुक्ति तभी आती है जब हम इस सूक्ष्म अंतर को जान लेते हैं। जिस व्यक्ति ने ‘मैं’ का त्याग

88. पाप के पहलू

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विकर्म (निषिद्ध कर्म) या पाप का प्रश्न बहुत जटिल है। अर्जुन भी इसी दुविधा में है और कहता है कि युद्ध में संबंधियों को मारने से पाप ही लगेगा ( 1.36) । वास्तव में , संस्कृतियों ने विभिन्न कर्मों को पापों के रूप में परिभाषित किया है और यह सूची समय के साथ बदलती रहती है। आधुनिक युग में , देशों के अपने पीनल कोड यानी दंड संहिता होती हैं जो कुछ कार्यों को अपराध या पाप मानती हैं। दंडसंहिता के अनुरूप व्यवहार न करने पर दंडनीय होते हैं। जब हमारे द्वारा ऐसे कथित पाप हो जाते हैं , तो हम खुद को ही अपराधबोध , अफसोस और शर्म की सजा लम्बे समय तक देते रहते हैं। इस सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ आशारहित , नियंत्रित मन और शरीर के साथ , सभी संपत्ति को त्याग कर , केवल शारीरिक कार्य करने वाला , कोई पाप नहीं करता’’ ( 4.21) । श्रीकृष्ण ने पहले पाप के बारे में बात की और अर्जुन से कहा , सुख और दु:ख ; लाभ और हानि ; जीत और हार को समान रूप से मानो और युद्ध करो , जिससे उसे कोई पाप नहीं होगा ( 2.38) । पाप का मूल्यांकन करने में समझने वाली सूक्ष्म बात यह है कि हम आमतौर पर भौतिक दुनिया में अप

87. नित्य-तृप्त

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  एक भूखी लोमड़ी ने ऊपर लटके हुए अंगूरों तक पहुँचने की कोशिश की , असफल रही और यह सोचने लगी कि अंगूर खट्टे हैं। यह परिचित कहानी निराशा , तृप्ति और खुशी से निपटने के मुद्दे पर कई कोण प्रस्तुत करती है। समकालीन मनोविज्ञान सुख के संश्लेषण को मानव मस्तिष्क के कार्यों में से एक के रूप में कहता है जो हमें कठिन परिस्थितियों से बाहर निकलने में मदद करता है। लोमड़ी ने ठीक वैसा ही किया और अपने आप को संतुष्ट कर लिया कि अंगूर खट्टे थे और आगे बढ़ गई। तृप्ति के सन्दर्भ में , श्रीकृष्ण ‘सुख के संश्लेषण’ से परे जाते हैं और कहते हैं , ‘‘ जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और नित्य तृप्त है , वह कर्मों में भलीभांति बरतता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता’’ ( 4.20) । ‘स्वयं से तृप्त’ गीता के मूल उपदेश में से एक है और कई अवसरों पर , श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मवान या आत्म-तृप्त होने का परामर्श देते हैं , जो अनिवार्य रूप से स्वयं से तृप्त है। आत्मवान किसी भी परिस्थिति में संतोष के भाव की सुगंध को फैलाता है। इससे पहले श्रीकृष

86. कामना और संकल्प छोड़ दें

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प्रत्येक संस्कृति ने समाज में शांति के लिए ‘क्या करें और क्या न करें’ का विकास किया और न्याय प्रणाली के विकास के साथ , कुछ ‘क्या न करें’ दंडनीय अपराध बन गए हैं। आपराधिक न्यायशास्त्र में , अपराध में इरादतन उपस्थिति और निष्पादन की भूमिका से अपराध का निर्धारण होता है। इरादा अपराध के पीछे का विचार है और निष्पादन भौतिक पक्ष है। किसी भी व्यक्ति को अपराध का दोषी ठहराने के लिए दोनों घटकों का प्रमाण आवश्यक है। यदि हम इरादा को संकल्प और निष्पादन को कामना के रूप में लेते हैं , तो हम श्रीकृष्ण के कथन को समझ सकते हैं , ‘‘ जिसके सम्पूर्ण शास्त्र सम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं , उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं’’ ( 4.19) । सामान्य तौर पर , समाज तब तक संतुष्ट रहता है जब तक कि कोई अपराध न हो , भले ही कोई आपराधिक इरादे से घूम रहा हो। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें कामना तो छोडऩा ही चाहिए , साथ में संकल्प को भी त्याग देना चाहिए। कानून के डर , संसाधनों की कमी या किसी की प्रतिष्ठा बनाए रखने जैसे विभ