102. परिणाम का समभाव से स्वीकार


श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी, संङ्गं (आसक्ति) को त्यागकर, केवल इंद्रियों-शरीर, मन और बुद्धि द्वारा अंत: करण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं (5.11)। यह व्याख्या की जाती है कि भले ही कोई वर्तमान क्षण में आसक्ति को छोड़ देता है, उसके पिछले कर्मबंधन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। इसलिए वह कर्म करता रहता है। इसे देखने का एक और तरीका यह है कि एक बार अनासक्त होने के बाद, उसके पास भौतिक या प्रकट दुनिया में प्राप्त करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है और सभी कार्यों से अंत: करण की शुद्धि होती है।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि, ‘‘युक्त कर्म के फल को त्यागकर, शाश्वत शांति प्राप्त करता है, जबकि अयुक्त, इच्छा से प्रेरित और फल से आसक्त होकर बंधता है’’ (5.12)। गीता के आधारभूत स्तंभों में से एक यह है कि कर्म पर हमारा अधिकार है, लेकिन कर्मफल पर नहीं है (2.47)। कर्मफल को त्यागने का अर्थ है कि किसी विशिष्ट परिणाम के लिए कोई वरीयता नहीं है क्योंकि किसी भी परिणाम को समभाव के साथ स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, चाहे वह कितना ही अद्भुत या भयानक हो। श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि अयुक्त में बुद्धि और भाव दोनों का अभाव है और परिणामस्वरूप, उसे न तो शांति मिलेगी और न ही आनंद (2.66)

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘अंत:करण जिसके वश में है ऐसा सांख्ययोग का आचरण करनेवाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीररूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है’’ (5.13)

इसकी कुंजी यह है कि, मानसिक रूप से सभी कार्यों का त्याग करना; भले ही वे कार्य करते हुए या किसी कार्य का कारण बनते हुए। कर्म होते रहते हैं चाहे हम उन्हें कर रहे हों या नहीं और हम केवल उनका हिस्सा बन जाते हैं। खाना खाने के बाद, पाचन के लिए सैकड़ों क्रियाएं होती हैं, परन्तु हमें उनके बारे में कोई जानकारी नहीं होती। वास्तव में, पाचन जैसे चमत्कार होते हैं जबकि हम मन के स्तर पर उस क्रिया में भाग नहीं लेते हैं।


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