111. स्वयं से मित्रता
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं , ‘‘ मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले , क्योंकि यह मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है’’ ( 6.5) । मित्रता की तरह इस अस्तित्वपरक श्लोक के अनेक आयाम हैं। सबसे पहले , यह प्रत्येक व्यक्ति पर खुद को ऊपर उठाने की जिम्मेदारी तय करता है। सामान्य प्रवृत्ति होती है कि अपनी असफलता का दोष परिवार , दोस्तों , सहकर्मियों , परिस्थितियों , काम करने की स्थिति , देश आदि जैसे किसी अन्य पर डाल देते हैं। जब कर्म किए जाते हैं जिन्हें या तो बुरे के रूप में चिन्हित किया जाता है या वांछित कर्मफल नहीं मिलता है तो अपने आप को दोषी मानते हैं और पछतावे से भर जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि यह दूसरों के प्रति कई गहरे विद्वेष और कड़वाहट पैदा करता है जो कभी-कभी जीवन भर तक बना रहता है। दूसरी ओर , जब भी हमारी स्मृति हमें हमारे पछतावे की याद दिलाती है तो हम बार-बार खुद को सजा देते हैं। परिस्थिति कैसी भी हो यह श्लोक हमें स्वयं को बेहतर बनाने में मदद करता है। श्रीकृष्ण ने पहले 3.34 श्लोक में आश्वासन दिया कि जब हम साष्टां...