143. जब कर्म ही पूजा बन जाए


 

मृत्यु के समय उन्हें जानने के सन्दर्भ में, श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार अर्पण किये हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा’’ (8.7) 

हम दिन में कुछ देर ईश्वर की पूजा करते हैं या कभी-कभी पूजास्थली में जाकर प्रभु को ‘स्मरण’ करते हैं। अलग-अलग विश्वास प्रणालियों के अनुसार भगवान के नाम और किए गए अनुष्ठान भिन्न होते हैं। प्रभु का स्मरण प्राय: अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए या संपत्ति, शक्ति या यश की प्राप्ति के लिए होता है। लेकिन यहां श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘हर समय मुझे याद करो’, जो असंभव लगता है क्योंकि हमें पता नहीं है कि दिन के हर समय प्रार्थना कैसे की जाती है।

इस पहेली का हल भक्ति योग की नींव से मिलता है, जो कहता है ‘सभी प्राणियों को स्वयं में देखना, स्वयं को सभी प्राणियों में देखना’, और परमात्मा को हर जगह देखना (6.29 एवं 6.30)। जब इस परम सत्य का बोध हो जाता है तो व्यक्ति को हर जगह परमात्मा का दर्शन हो जाता है जो हर समय उन्हें याद करने के अलावा और कुछ नहीं है। हम जो भी देखते हैं चाहे वह सुंदर हो या असुंदर, हम जो कुछ भी सुनते हैं चाहे वह स्तुति हो या आलोचना, वह और कुछ नहीं बल्कि परमात्मा है।

एक बार जब यह समझ विकसित हो जाती है, तो अर्जुन को युद्ध में जाने की कृष्ण की सलाह को आसानी से समझा जा सकता है। श्रीकृष्ण ‘हाथ में जो काम है उसे करने के’ पक्ष में हैं जो कुरुक्षेत्र के युद्ध के सन्दर्भ में लड़ाई लडऩा है। निश्चित रूप से, युद्ध में परमात्मा को देखना अर्जुन के लिए भी एक कठिन परीक्षा है और हम अलग नहीं हैं।

इस अवस्था तक पहुंचने का एक व्यावहारिक तरीका यह है कि हम अपने पेशेवर या निजी जीवन में दूसरे व्यक्ति की बातों को सहानुभूतिपूर्वक समझने की कोशिश करें। इससे हमें यह महसूस करने में मदद मिलेगी कि समान परिस्थितियों में हम भी इसी तरह का व्यवहार करते। यह प्रक्रिया हमें विभाजन और मतभेदों को छोडक़र एकता प्राप्त करने और हर कार्य प्रार्थना की तरह करने में मदद करेगी।

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