144. दिल और दिमाग


 

श्रीमद्भगवद्गीता एक जीवंत बातचीत थी जहां श्रीकृष्ण अर्जुन को सम्पूर्णता में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के चेहरे पर संदेह या अविश्वास की अभिव्यक्ति देखी होगी जब श्रीकृष्ण ने ‘उन्हें हर समय याद करते हुए युद्ध करने का उल्लेख किया था’ (8.7) क्योंकि अर्जुन हाथ में काम (कुरुक्षेत्र युद्ध) का प्रतिरोध कर रहे थे। काम के प्रतिरोध की यह प्रवृत्ति हमारे अंदर भी मौजूद है।

श्रीकृष्ण तुरंत स्वयं को सर्वव्यापी, शाश्वत, महान शासक, सूक्ष्मतम परमाणु से भी सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करने वाले, अचिंन्त्य स्वरूप, सूर्य की तरह नित्य चेतन प्रकाशरूप, अंधेरे से परे के रूप में वर्णित करते हैं (8.9)। जब अस्तित्व को अपना वर्णन करना हो तो शब्द भी कम पड़ जाते हैं।

श्रीकृष्ण उन्हें याद रखने के लिए दो रास्ते बताते हैं। एक जागरूकता का मार्ग है जब वे कहते हैं, ‘‘यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त, दूसरी ओर न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिंतन करता हुआ मनुष्य परम प्रकाशरूप दिव्य पुरुष को अर्थात परमेश्वर को ही प्राप्त होता है’’ (8.8)

इंद्रियों द्वारा लाई गई संवेदनाओं को विभाजित करने के लिए मन विकसित होता है और यह विभाजन सुख और दर्द के ध्रुवों का जन्मस्थान है (2.14)। हालांकि यह हमें जीवित रखने में अथवा पशुवत जीवन के लिए उपयोगी है, इस क्षमता को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है। श्रीकृष्ण इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए जागरूकता का मार्ग यानी समता का योग सुझाते हैं।

दूसरा मार्ग भक्ति पर आधारित एक तंत्र है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योग बल से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्यरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है’’ (8.10)। यद्यपि यह मार्ग निरन्तर भटकते हुए मन को वश में करने के मार्ग की अपेक्षा सरल प्रतीत होता है, तथापि भक्ति इसकी पहली शर्त है।

गीता में भक्ति और श्रद्धा सामान्य सूत्र हैं। भक्ति एक फूल की सुगंध जैसी बाहरी परिस्थितियों के बावजूद हमारे दिल से बहने वाला बिना शर्त वाला प्यार है। श्रद्धा हमारे रास्ते में आने वाली किसी भी चीज़ को बिना किसी प्रतिरोध के परमात्मा का आशीर्वाद समझकर स्वीकार करना है।

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