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Showing posts from June, 2025

179. बदलते लक्ष्य

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  मानसिक अस्पताल में काम करने वाला एक डॉक्टर अपने एक दोस्त को अस्पताल दिखाने ले गया। उसके दोस्त ने एक कमरे में एक आदमी को एक महिला की तस्वीर के साथ देखा और डॉक्टर ने बताया कि वह आदमी उस महिला से प्यार करता था और जब वह उससे शादी नहीं कर सका तो मानसिक रूप से अस्थिर हो गया। अगले कमरे में , उसी महिला की तस्वीर के साथ एक और आदमी था और डॉक्टर ने बताया कि उससे शादी करने के बाद वह मानसिक रूप से अस्थिर हो गया था। यह विडम्बना से भरी हुई कहानी बताती है कि पूर्ण और अपूर्ण इच्छाओं के एक जैसे विनाशकारी परिणाम कैसे हो सकते हैं।   अर्जुन के साथ भी यही हुआ। भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय ' विश्वरूप दर्शन योग ' के प्रारंभ में , वह श्रीकृष्ण का विश्वरूप देखना चाहते थे। लेकिन जब उन्होंने श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखा तो वह भयभीत हो गए। चिंतित अर्जुन अब श्रीकृष्ण को उनके मानव रूप में देखने की इच्छा प्रकट करते हैं। इसी तरह , जीवन में हम...

178. नफरत ही दुर्गति है

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  श्रीकृष्ण कहते हैं , " मेरे इस विराट रूप को तुमसे पहले किसी ने नहीं देखा है (11.47) । मेरा यह विराट रूप न तो वेदों के अध्ययन से , न यज्ञों से , न दान से , न कर्मकाण्डों से और न ही कठोर तपस्या से देखा जा सकता है (11.48) । भयमुक्त और प्रसन्नचित्त होकर मेरे इस पुरुषोत्तम रूप को फिर से देखो " (11.49) ।   श्रीकृष्ण अपने मानव स्वरूप में आ जाते हैं (11.50) और अर्जुन का चित्त स्थिर हो जाता है (11.51) । श्रीकृष्ण कहते हैं , " मेरे इस रूप को देख पाना अति दुर्लभ है। स्वर्ग के देवता भी इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते हैं (11.52) । मेरे इस रूप को न तो वेदों के अध्ययन , न ही तपस्या , दान और यज्ञों जैसे साधनों द्वारा देखा जा सकता है " (11.53) ।   हमारी सामान्य धारणा यह है कि दान से हमें पुण्य मिलता है। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि दान हमें उनके विश्वरूप को देखने में मदद नहीं कर सकता। जब दान अहंकार से प्रेरित होता है , तो यह पुण...