46. क्या हमारा है, क्या नहीं

श्रीकृष्ण कहते हैं : जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभांति पार कर जायेगी , उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जायेगा (2.52) । इसका तात्पर्य यह है कि जब हम मोह पर विजय प्राप्त करते हैं , तो हमारी इंद्रियों से उत्पन्न संवेदना हमें अपनी इच्छा से प्रभावित करने की शक्ति खो देगी। श्रीकृष्ण ने यहां सुनने को रूपक के रूप में चुना , क्योंकि हम अक्सर दूसरों के शब्दों जैसे प्रशंसा और आलोचना ; गपशप और अफवाहें आदि से प्रभावित होते हैं। मूल रूप से , क्या हमारा है और क्या नहीं इनके बीच अंतर करने की हमारी अक्षमता ही मोह है। यह भौतिक संपत्ति और भावनाओं के स्वामित्व की भावना है ; वर्तमान में और साथ ही भविष्य में। हालांकि , वास्तव में हम इनके मालिक नहीं हैं। जबकि हम उस चीज़ से जुड़े रहने की कोशिश करते हैं जो हमारी नहीं है , और हमें इस बारे में कोई भान नहीं है। हम देही / आ...