48. स्वयं से संतृप्त


 

भगवान श्रीकृष्ण ने 2.11 से 2.53 तक सांख्ययोग का खुलासा किया, जो अर्जुन के लिए पूरी तरह से नयी बात थी। अर्जुन ने (2.54) स्थितप्रज्ञ, जिसने समाधि प्राप्त कर ली है, के लक्षण क्या हैं और एक स्थितप्रज्ञ कैसे बोलता है, बैठता है और चलता है, के बारे में जानना चाहा।

अर्जुन को स्पष्टीकरण (2.55) के माध्यम से, श्रीकृष्ण हमारी तुलना चाहने वाले दिमाग की मदद करने के लिए मानक यानी बेंचमार्क निर्धारित करते हैं। वे मानक जिनसे हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति करते हुए खुद को मापते हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं: जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को पूरी तरह त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है(2.55) जब कोई स्वयं से संतुष्ट होता है, तो इच्छाएं अपने आप नष्ट हो जाती हैं। जैसे-जैसे इच्छाएँ नष्ट होती हैं, उनके सभी कार्य निष्काम कर्म बन जाते हैं।

हम जो हैं उससे अलग होने की हमेशा इच्छा रखते हैं। हम बहुत जल्दी ऊब जाते हैं। इस अवस्था को अर्थशास्त्र मेंसंतुष्ट इच्छा हमें प्रेरित नहीं करता है, कहते हैं। दुर्भाग्य यह है कि, हर कोई इसे अन्य सभी पर एक युक्ति के रूप में उपयोग करता है, जिससे स्थितप्रज्ञ बनना कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता उत्पाद कंपनियां नियमित रूप से नए उत्पाद/मॉडल पेश करती हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि उपभोक्ता समय-समय पर एक नया मॉडल या चीज लेना चाहते हैं।

दूसरी ओर, अगर हम खुद से संतुष्ट नहीं हैं या कम से कम यह मानते हैं कि हम खुद खुश होने में सक्षम नहीं हैं, तो हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि परिवार सहित अन्य लोग हमसे खुश होंगे। इसके विपरीत, हम दूसरों से आनंद कैसे प्राप्त कर सकते हैं जो स्वयं को संतृप्त करने में असमर्थ हैं।

इच्छाओं को छोडऩे के लिए एक गहरी जागरूकता की आवश्यकता होती है कि सुख के लिए हर पीछा एक मृगतृष्णा का पीछा करने जैसा है। हमारे जीवन के सभी अनुभव इस मूल सत्य की पुष्टि करते हैं। इच्छाओं को छोडऩा यह है कि सचेत रूप से उनकी तीव्रता को कम किया जाए यानी उनका पीछा कम किया जाये और यह करने से शांति प्राप्त होती है।

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