182. परमात्मा को कर्म समर्पित करना

 


मस्तिष्क (सेरिब्रम) दो हिस्सों - दायां और बायां गोलार्ध में विभाजित है। मस्तिष्क का दाहिना भाग रचनात्मकता, भावनाओं आदि से संबंधित कार्यों को नियंत्रित करता है जबकि मस्तिष्क का बायां हिस्सा विश्लेषणात्मक और तार्किक कार्यों को संचालित करता है, यद्यपि वे मिलकर काम करते हैं। इसे गीता के सन्दर्भ में देखें तो, दाएं मस्तिष्क से प्रभावित व्यक्ति 'भक्ति' की ओर आकर्षित होते हैं, जबकि बाएं मस्तिष्क से प्रभावित व्यक्ति जागरूकता (सांख्य) की ओर आकर्षित होते हैं। दोनों ही स्थितियों में 'कर्म' शामिल होता है।

 सांख्य उन्मुख व्यक्तियों के लिए, श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि कोई भी एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि हम गुणों के प्रभाव से कर्म करने के लिए बाध्य हैं (3.5, 3.27) इसका अर्थ यह है कि गुण ही वास्तविक कर्ता हैं। भक्ति उन्मुख लोगों को इसे समझने में कठिनाई होगी।

 भक्ति उन्मुख लोगों के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं, "लेकिन जो अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हैं और मुझे परम लक्ष्य समझकर मेरी आराधना करते हैं और अनन्य भक्ति भाव से मेरा ध्यान करते हैं, मन को मुझमें स्थिर कर अपनी चेतना को मेरे साथ एकीकृत कर देते हैं; हे पार्थ! मैं उन्हें शीघ्र जन्म-मृत्यु के सागर (संसार) से पार कर उनका उद्धार करता हूँ" (12.6-12.7)

 सबसे पहले, अपने कर्मों को परमात्मा को समर्पित करना निमित्तमात्र होने के अलावा और कुछ नहीं है। उदाहरण के लिए, चाकू चोट पहुंचा सकता है या रस्सियों को काटकर उलझे हुए को छुड़ा सकता है। यह उपयोग करने वाले पर निर्भर करता है और चाकू इस बात से बंधता नहीं कि वह क्या कर रहा है -चाहे उस कर्म को अच्छा माना जाए या बुरा। कर्मों को समर्पित करने का अर्थ है, परमात्मा को स्वामी के रूप में केंद्र में रखें और हम उनके हाथ में एक उपकरण के रूप में बने रहें।

 श्रीकृष्ण 'जन्म और मृत्यु के संसार से मुक्त होने' का उल्लेख करते हैं। पारंपरिक व्याख्या यह है कि उन्हें प्राप्त करने के बाद हमारा कोई पुनर्जन्म नहीं होगा। एक अन्य संभावित परिदृश्य यह है कि यह हमारे चारों ओर लगातार बदलती परिस्थितियों के कारण हमारे अंदर उत्पन्न होने वाले दुःख (मृत्यु) और सुख (जन्म) से शाश्वत मुक्ति (मोक्ष) है।


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