श्रीकृष्ण कहते हैं,
"वे जो किसी को उत्तेजित नहीं करते और न ही किसी के द्वारा उत्तेजित होते हैं, जो सुख-दुःख में समभाव रहते हैं, भय और चिन्ता से मुक्त रहते हैं मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं। वे जो सांसारिक प्रलोभनों से उदासीन रहते हैं बाह्य और आंतरिक रूप से शुद्ध,
निपुण, चिन्ता रहित,
कष्ट रहित और सभी कार्यकलापों में स्वार्थ रहित रहते हैं, मेरे ऐसे भक्त मुझे अति प्रिय हैं" (12.15 और
12.16)। 'उत्तेजित न होना और दूसरों को उत्तेजित न करना' जीवन का उच्चतम रूप है।
श्रीकृष्ण ने पहले ही इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि हम उत्तेजित क्यों हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि जब इंद्रियां इन्द्रिय विषयों से मिलती हैं,
जैसे कि जब कान हमारी प्रशंसा या आलोचना सुनते हैं, तो हमारे अंदर सुख और दुःख की ध्रुवताएं उत्पन्न होती हैं। उन्होंने हमें सलाह दी कि हम उन ध्रुवीयताओं को अनदेखा करना सीखें क्योंकि वे अनित्य हैं (2.14)। ये ध्रुवताएं और कुछ नहीं बल्कि वे उत्तेजनाएं हैं जिन्हें हम महसूस करते हैं।
हमारे दैनिक जीवन में, उत्तेजना 'किसी और पर दोष मढ़कर बचने'
की तरह काम करता है। उदाहरण के लिए, हम कार्यस्थल पर किसी उच्च अधिकारी से उत्तेजना पाकर किसी निचले कर्मचारी पर या परिवार के किसी सदस्य पर निकाल देते हैं। लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं कि न तो उत्तेजना लेना है और न ही देना है। यह निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण मार्ग है।
श्रीकृष्ण ने समुद्र और नदी का उदाहरण दिया और आश्वासन दिया कि जब कोई व्यक्ति इच्छाओं या उत्तेजनाओं से अविचलित रहता है, तो उसे उसी प्रकार की शांति मिलती है, जैसे समुद्र अपने अंदर प्रवेश करने वाले जल प्रवाह से अविचलित रहता है (2.70)। हालांकि समुद्र अपने अंदर प्रवेश करने वाले पानी से विचलित नहीं होता है,
वह इस पानी को बादलों के रूप में वापस कर देता है जिसे श्रीकृष्ण ने 'यज्ञ' का एक निस्वार्थ कर्म बताया है। जब हम निस्वार्थ कर्मों के चक्र में शामिल होते हैं, तो उत्तेजना का हमारे जीवन में कोई स्थान नहीं होगा।
जबकि जागरूकता हमें उत्तेजनाओं से मुक्त होने में मदद करती है,
हमारी करुणा हमें यह सुनिश्चित करने में मदद करती है कि हम दूसरों को उत्तेजित न करें। इसीलिए कहा जाता है कि जागरूकता और करुणा आध्यात्मिक यात्रा में नाव के दो पतवार हैं।
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