187. आटे के पीछे कांटा छिपा होता है

 


श्रीकृष्ण कहते हैं, "वह जो हर्षित होता है, द्वेष करता है, शोक करता है, कामना करता है, शुभ और अशुभ सभी कर्मों का त्याग करता है, मित्र-शत्रु और मान-अपमान के प्रति सम है, सर्दी और गर्मी के अनुभवों और सुख-दुःख के द्वंद्वों में सम है, आसक्ति से रहित, भक्ति से परिपूर्ण है वह मुझे अत्यधिक प्रिय है" (12.17 और 12.18) यह इन भावनाओं और संवेदनाओं को साक्षी भाव से देखना है कि इनसे अपनी पहचान बनाना।

 एक नवजात 'सार्वभौमिक शिशु' होता है जिसके मस्तिष्क में भविष्य की आवश्यकताओं और चुनौतियों का सामना करने के लिए कई स्वतंत्र न्यूरॉन्स होते हैं। प्रारंभिक वर्षों के दौरान, पालन-पोषण, परिवार, समाज आदि के आधार पर उसके कई तंत्रिका प्रतिरूप (neural pattern) बनते हैं। ये प्रतिरूप बाहरी स्थितियों और लोगों को अच्छे या बुरे के रूप में विभाजित करते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण ने पहले सुझाव दिया था कि बुद्धि से संपन्न व्यक्ति अच्छे और बुरे दोनों कर्मों को त्याग देता है (2.50), जिसका अर्थ है कि एक बार जब हम समता के योग को प्राप्त कर लेते हैं तो विभाजन खत्म हो जाता है। यहाँ भी यही बात दिखती है कि वे भक्त परमात्मा को प्रिय हैं जो इन पहचानों को त्याग देते हैं। एक बार जब इन्हें छोड़ दिया जाता है तो सम्मान या अपमान; पसंद या नापसंद दोनों स्थितियों में कोई अंतर महसूस नहीं होता है।

श्रीकृष्ण ने पहले कहा था कि स्थितप्रज्ञ वह है जो तो सुख से प्रसन्न होता है और ही दुःख से विचलित होता है और राग (आसक्ति) से मुक्त होता है (2.56) हम सभी सुख चाहते हैं लेकिन दुःख अनिवार्य रूप से हमारे जीवन में आता है क्योंकि वे दोनों द्वंद्व के जोड़े में मौजूद हैं। यह मछली के लिए आटे की तरह है जहां आटे के पीछे कांटा छिपा होता है। जीवन के अनुभव हमारे अंदर यह जागरूकता पैदा करते हैं कि जब हम एक ध्रुव की तलाश करते हैं, तो दूसरा ध्रुव उसका अनुसरण करने के लिए बाध्य होता है - हो सकता है एक अलग आकार में और कुछ समय बीतने के बाद। यह जागरूकता हमें ध्रुवताओं को पार करने और समत्व की स्थिति प्राप्त करने में मदद करती है। यह एक नाटक में एक कलाकार होने जैसा है जो तीव्र भावनाओं को दर्शाता है लेकिन उनसे जुड़ा नहीं रहता।

 


Comments

Popular posts from this blog

183. अभ्यास मनुष्य को परिपूर्ण बनाता है

161. आदि, मध्य और अंत

184. त्याग के बाद शांति आती है