श्रीकृष्ण भौतिक शरीर को क्षेत्र के रूप में संदर्भित करते हैं और इसकी विशेषताएं और इसके कारण और प्रभाव (विकार)
के बारे संक्षेप में बताते हैं; तथा क्षेत्रज्ञ
(क्षेत्र का ज्ञाता) और उनकी शक्तियों के बारे में भी बताते हैं। वह आगाह करते हैं कि इनका वर्णन विभिन्न ऋषियों द्वारा और कई आध्यात्मिक ग्रंथों में कई तरह से किया गया है (13.4 और 13.5)। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन विभिन्न ऋषियों और ग्रंथों द्वारा अलग-अलग तरीकों से किया गया है। यह एक गम्भीर समस्या है जहाँ सत्य का वर्णन अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग तरीकों से किया गया है जिससे हमें समझने में कठिनाई आती है। श्रीकृष्ण शब्दों के मायाजाल में न खोने के लिए कहते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं,
"पाँच महाभूत, अहंकार,
बुद्धि और मूल प्रकृति, दस इन्द्रियां और मन,
इन्द्रियों के पाँच विषय (13.6);
इच्छा, घृणा, सुख, दुःख, स्थूल देह का पिंड, चेतना, ये सब इनके विकारों के सहित क्षेत्र कहा गया है" (13.7)।
पाँच महाभूत में,
अग्नि (ऊर्जा);
पदार्थ की तीन अवस्थाएं - पृथ्वी (ठोस),
जल (तरल) और वायु (गैस) और उन्हें रखने के लिए आकाश हैं। आंखों के लिए दृष्टि, कानों के लिए ध्वनि, नाक के लिए गंध, जीभ के लिए स्वाद और त्वचा के लिए स्पर्श ये पांच इंद्रिय वस्तुएं हैं। दस इंद्रियों में अनुभूति के पांच अंग (ज्ञान-इंद्रियां) जैसे आंख,
कान, नाक, जीभ और त्वचा और पांच कर्म अंग (कर्म-इंद्रियां) जैसे हाथ,
पैर, वाणी, जनन अंग और शौच का अंग हैं। बाकी हमारे अंदर उत्पन्न होने वाली विभिन्न भावनाएं हैं जो क्षेत्र का हिस्सा बन जाती हैं। उनके बीच की परस्पर क्रिया को हम जीवन के रूप में देखते हैं।
अव्यक्त और चेतना को आमतौर पर मानव शरीर से परे माना जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह भी क्षेत्र का हिस्सा हैं लेकिन क्षेत्रज्ञ के नहीं हैं। बीज में एक अव्यक्त वृक्ष छिपा हुआ होता है और इस अर्थ में अव्यक्त भी क्षेत्र का एक हिस्सा है। चेतना किसी चीज के प्रति सचेत है या चेतना के अस्तित्व के लिए किसी चीज की आवश्यकता होती है। इसलिए यह भी क्षेत्र का एक भाग है।
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