55. दुष्चक्र और गुणी चक्र


 

दुष्चक्र और गुणी चक्र घटनाओं का एक क्रम है जहां एक घटना दूसरे की ओर ले जाती है और परिणामस्वरूप क्रमश: आपदा या खुशी में परिवर्तित हो जाती है। इसे उस तरह से समझने कि जरूरत है, यदि खर्च आय से अधिक है तो व्यक्ति उधार और कर्ज के जाल में फंस जाता है, तो यह एक दुष्चक्र है। यदि व्यय आय से कम है, जिसके परिणामस्वरूप बचत और धन का संचय होता है, तो यह एक गुणी चक्र है। श्रीकृष्ण इन चक्रों का उल्लेख श्लोक 2.62 से 2.64 में करते हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं: विषयों का चिंतन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडऩे से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है (2.62-2.63) यह पतन का दुष्चक्र है।

दूसरी ओर, श्रीकृष्ण कहते हैं: अपने अधीन किये हुए मन वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ मन की शांति और प्रसन्नता को हासिल करता है (2.64) यह और कुछ नहीं बल्कि शांति और आनंद का एक गुणी चक्र है।

हम सभी दैनिक जीवन में इन्द्रिय विषयों के बीच घूमते रहते हैं। हम इन इंद्रिय विषयों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, यह हमारी यात्रा की दिशा निर्धारित करता है।

गुणी चक्र के मामले में, व्यक्ति इंद्रिय विषयों के प्रति राग और द्वेष से मुक्त हो जाता है, जबकि एक दुष्चक्र में व्यक्ति राग या द्वेश के प्रति लगाव विकसित करता है। यह यात्रा द्वेष को छोडक़र शुरू करना आसान है, इस अहसास के साथ कि यह एक प्रकार का जहर है जो अंतत: हमें नुकसान पहुंचाता है। जब इसे छोड़ा जाता है, तो इसका विपरीत राग भी छूट जाता है, जो सच्चा और बिना शर्त वाला प्यार है जैसे कि एक फूल सुंदरता और सुगंध बिखेरता है।

राग और द्वेष की अनुपस्थिति गीता में एक मूल उपदेश है और श्रीकृष्ण हमें सलाह देते हैं कि अपने को सभी प्राणियों में, सभी प्राणियों को अपने आप में देखें (6.29) और अंत में हर जगह श्रीकृष्ण को देखें। यह एकता हमें द्वेश छोडऩे में मदद करेगी, और अंतत: हमें आनंदित बनाएगी।

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