अर्जुन कहते हैं,
"मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक विषयों का उपदेश दिया है, उसे सुनकर अब मेरा भ्रम दूर हो गया है (11.1)। मैने आपसे सभी प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के संबंध में विस्तार से सुना है तथा मैंने आपकी अविनाशी महिमा को भी जाना है (11.2)। आपने मुझे अपने परम विभूतियों के बारे में बताया है,
किन्तु मैं इन सारे विभूतियों से युक्त आपके स्वरूप को प्रत्यक्ष देखने का इच्छुक हूँ (11.3)। यदि आप मानते हैं कि मैं आपके परम स्वरूप को देखने में सक्षम हूँ,
तो कृपा करके मुझे उस अविनाशी स्वरूप को दिखाएं" (11.4)।
आम धारणा यह है कि भ्रम पर काबू पाने और अध्यात्म प्राप्त करने के लिए परमात्मा का आशीर्वाद जरूरी है। हालाँकि यह तर्कसंगत प्रतीत होता है, परन्तु आंतरिक परिवर्तन से बचने के लिए इसे एक बहाने के रूप में प्रयोग किया जाता है। यदि किसी को कर्मफल की आशा किए बिना कर्म करने के लिए कहा जाए तो वह तर्क देगा कि यह ईश्वर के आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है। ऐसा तब भी होता है जब किसी को ध्रुवों से परे या गुणों से परे जाने के लिए कहा जाता है; या विभाजन को छोड़कर अपने चारों ओर के प्रत्येक सजीव और निर्जीव इकाई में परमात्मा को देखने के लिए कहा जाता है।
दूसरी ओर, जिसने भी अध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया, उसने कहा कि यह परमात्मा के अनुग्रह के कारण हुआ है क्योंकि उन्हें जो मिला वह उनकी कल्पना से परे था। यह विरोधाभासी लगता है। मूल रूप से,
ईश्वर का आशीर्वाद बारिश की तरह सभी के लिए उपलब्ध है और हमें निश्चित रूप से पानी संग्रह करने के लिए कटोरे को सीधा रखने का प्रयास करना चाहिए।
श्रीकृष्ण कहते हैं,
"मैं सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखता हूँ। मेरे लिए कोई भी द्वेष्य नहीं है, कोई भी प्रिय नहीं है। लेकिन जो लोग भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करते हैं वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ" (9.29)। भक्ति में अंतर है जो हमारे कटोरे को सीधा रखने के समान है। समसामयिक संदर्भ में अहंकार को हकदारी कहा जाता है। भक्ति यह समझकर अपनी हकदारी की भावना का परित्याग करना है कि यह सब उनकी कृपा है। इसके साथ-साथ इस शक्तिशाली सृष्टि द्वारा वर्तमान क्षण में हमें सौंपे गए कर्मों को बिना आसक्ति या विरक्ति के करना है।
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