ज्ञान के बारे में अर्जुन के अनुरोध के जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं,
"विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा,
क्षमा, मन-वाणी आदि की सरलता, गुरु की सेवा,
पवित्रता, दृढ़ता, आत्मसंयम (13.8); इंद्रिय विषयों के प्रति वैराग्य, अहंकार रहित होना,
जन्म, रोग, बुढ़ापा और मृत्यु के दोषों की अनुभूति (13.9); अनासक्ति, सन्तान,
स्त्री, घर या धन आदि वस्तुओं की ममता से मुक्ति, प्रिय और अप्रिय प्राप्ति में सदा ही शाश्वत समभाव,
ज्ञान है" (13.10)।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति,
एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा, लौकिक समुदाय के प्रति विमुखता (13.11); आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज, इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके विपरीत है वह अज्ञान है” (13.12)। इनमें से कुछ स्वयं के बारे में हैं और बाकी बाहरी दुनिया के साथ हमारे संबंधों के बारे में हैं।
'मेरे जैसा कोई नहीं' की मनोदशा से ग्रसित कोई भी व्यक्ति विनम्रता को कमजोरी मानने लगता है। लेकिन श्रीकृष्ण विनम्रता को ज्ञान का प्रारंभिक बिंदु मानते हैं। विनम्रता न तो कमजोरी है और न ही लाचारी, बल्कि सर्वशक्तिमान अस्तित्व के साथ तालमेल बिठाने का एक तरीका है। अहंकार का अभाव ही विनम्रता है।
स्वयं के साथ संतुष्ट रहना ज्ञान का एक अन्य पहलू है। ऐसा तब होता है जब हम अपने आप में केंद्रित होते हैं,
जहां हमें इन्द्रिय विषयों की आवश्यकता नहीं होती है। जब इंद्रिय विषयों के प्रति वैराग्य हो जाता है, तो व्यक्ति स्वयं में केंद्रित रहता है,
भले ही वह इंद्रिय विषयों या लोगों की भीड़ में विचर रहा हो।
प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों के प्रति समभाव ज्ञान का एक और पहलू है। अनुकूल परिस्थितियों में हम प्रसन्न होते हैं और कठिन परिस्थितियों का सामना होने पर तनावग्रस्त हो जाते हैं। समभाव प्राप्त करना ही उन दोनों को एक समान मानने का एकमात्र तरीका है। ऐसी अवस्था में बाहरी परिस्थितियाँ हमें प्रभावित करने की अपनी क्षमता खो देती हैं। ज्ञान के इन बीस पहलुओं को आत्मसात करना आध्यात्मिक ज्ञान
को ‘जानने’
से आध्यात्मिक ‘होने’
की यात्रा है।
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