18. ‘सत्य’ एवं ‘असत्य'


श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य जो कि वास्तविकता और स्थायित्व है, कभी समाप्त नहीं होता है। असत्य जो कि भ्रम और अस्थायी है, का कोई अस्तित्व नहीं है। ज्ञानी वह है जो दोनों के बीच अंतर कर सके (2.16)

सत्य और असत्य की पेचीदगियों को समझने के लिए कई संस्कृतियों में रस्सी और सांप की कहानी को अक्सर उद्धृत किया जाता है। एक आदमी शाम को घर वापस पहुंचा और पाया कि उसके घर के प्रवेश द्वार पर एक सांप कुंडली मारे बैठा है। लेकिन वास्तव में यह बच्चों द्वारा छोड़ी गई रस्सी थी, जो हल्के अंधेरे में सांप की तरह दिखती थी। यहां रस्सी सत्य और सांप असत्य का प्रतीक है। जब तक उसे सत्य यानी रस्सी का बोध नहीं हो जाता, तब तक वह असत्य यानी कल्पित सांप से निपटने के लिए कई रणनीतियाँ अपना सकता है। वह उस पर डंडे से हमला कर सकता है या भाग सकता है या उसकी वास्तविकता परखने के लिए मशाल जला सकता है।  जब हमारी धारणा असत्य की होती है तो सर्वोत्तम रणनीतियाँ और कौशल व्यर्थ हो जाते हैं।

असत्य का अस्तित्व सत्य से होता है, जैसे रस्सी के बिना सर्प का अस्तित्व नहीं है। चूँकि असत्य का अस्तित्व सत्य के कारण है, यह हमें किसी बुरे सपने की तरह प्रभावित कर सकता है जो हमारे शरीर को नींद में पसीने से तर-बतर कर सकता है।

असत्य की पहचान के लिए श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया परख का तरीका यह सिद्धांत है कि - ‘जो अतीत में मौजूद नहीं था और भविष्य में नहीं होगा।यदि हम इंद्रियजन्य सुख का उदाहरण लेते हैं, तो यह पहले भी नहीं था और कुछ समय बाद नहीं होगा। दर्द और अन्य सभी मामलों में भी ऐसा ही है। इस सम्बन्ध में संकेत यह है कि असत्य समय में मौजूद है जबकि सत्य शाश्वत है।

सत्य अंतरात्मा है जो शाश्वत है और अहंकार असत्य है जो अंतरात्मा के समर्थन से खुद को बनाए रखता है। जिस दिन हम रस्सी रुपी आत्मा की खोज कर लेते हैं, तब साँप रुपी अहंकार अपने आप गायब हो जाता है।

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