23. आत्मा अव्यक्त है

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं (2.25) कि आत्मा को अव्यक्त, अकल्पनीय और विकाररहित कहा जाता है, और एक बार जब आप यह बात समझ जाते हैं, तो भौतिक शरीर के लिए शोक करने की कोई जरूरत नहीं रहती। श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि (2.28) सभी प्राणी अपने जन्म से पहले अव्यक्त थे, वे अपने जन्म और मृत्यु के बीच प्रकट होते हैं और अपनी मृत्यु के बाद एक बार फिर अदृष्य हो जाते हैं।

इसे समझाने के लिए कई संस्कृतियां समुद्र और लहर का उदहारण देते हैं। सागर अव्यक्त का प्रतिनिधित्व करता है और लहर प्रकट का प्रतिनिधित्व करती है। समुद्र में कुछ समय के लिए लहरें उठती हैं और वे अलग-अलग आकृति, आकार, तीव्रता आदि में दिखाई देती हैं। अंत में लहरें जहाँ से उठी थीं वापस उसी समुद्र में विलीन हो जाती हैं । हमारी इंद्रियां केवल व्यक्त यानी तरंगों को ही समझने की क्षमता रखती हैं।

इसी तरह, एक बीज में वृक्ष बनने की क्षमता होती है। बीज में वृक्ष अव्यक्त रूप में है। यह प्रकट होकर एक पेड़ के रूप में विकसित होने लगता है। कई बीज पैदा करने के बाद यह अंतत: खत्म हो जाता है।

व्यक्त वह है जिसे इंद्रियां अपनी सीमित क्षमताओं के साथ समझ सकती हैं। आधुनिक युग में हमारी इंद्रियों की क्षमताओं को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक उपकरण भी उपलब्ध हैं। खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) / दूरबीन आंखों की देखने की क्षमता को बढ़ाने के लिए हैं। एक्स-रे मशीन रोशनी की अलग-अलग आवृत्तियों में चीजों को आंखों से देखने में सक्षम बनाती है।

लेकिन, श्रीकृष्ण कहते हैं यह (अव्यक्त) अकल्पनीय है; जिसका अर्थ है कि वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से भी हमारी इंद्रियां इसे समझने में हमारी मदद नहीं करेंगी। मन अव्यक्त की कल्पना करने में असमर्थ है, क्योंकि मन भी इंद्रियों का एक समुच्चय मात्र है।

हमारी तरह, अर्जुन ने भी अपनी पहचान मानव शरीर से की, क्योंकि उसके पास इससे आगे का कोई अहसास या अनुभव नहीं था। श्रीकृष्ण अर्जुन को अव्यक्त के बारे में बताकर उसकी सोच में एक आदर्श बदलाव लाने की कोशिश करते हैं। अर्जुन जैसे विद्वान को यह समझने के लिए स्वयं भगवान की आवश्यकता पड़ी, इसलिए हम कोई अपवाद नहीं हैं।

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