167. अस्तित्व का बीज


 श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं सभी प्राणियों का जनक बीज हूँ। कोई भी चर या अचर मेरे बिना नहीं रह सकता (10.39) मेरी दिव्य अभिव्यक्तियों का कोई अंत नहीं है। जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वह मेरी अनन्त विभूतियों का संकेत मात्र है" (10.40)

 परमात्मा अस्तित्व का बीज हैं और समकालीन वैज्ञानिक समझ में इस बीज को 'बिग बैंग' कहा जाता है। अस्तित्व एक विशाल वृक्ष की तरह है जो एक छोटे से बीज से विकसित हुआ है। ऐसे वृक्ष के फलों को इस वास्तविकता को समझने में कठिनाई होती है और वे किसी किसी शाखा से अपनी पहचान बनाने के लिए प्रवृत्त होते हैं। इसी प्रकार, हम भी किसी किसी अभिव्यक्ति के साथ पहचान बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं। इससे हमारे आसपास महसूस करने वाले विभाजन और मतभेद पैदा होते हैं।

 श्रीकृष्ण आगे कहते हैं, "यह जान लो कि जो भी विभूतियुक्त अर्थात ऐश्वर्य, सौंदर्य या तेजस्वी युक्त सृष्टियाँ हैं, उन सबको तुम मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जानो" (10.41) अज्ञानता के स्तर पर, जब कोई दूसरों में शक्ति, प्रतिभा या सुंदरता देखता है, तो उसके मन में ईर्ष्या या इन्हें हासिल करने की इच्छा पैदा हो सकती है। यह दुर्गति के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में कोई व्यक्ति अंधविश्वास के कारण किसी पंथ या संप्रदाय का हिस्सा बन सकता है।

 अगला स्तर इन विभूतियों को प्राप्त करने के लिए स्वयं को प्रेरित करना है। अंतिम स्थिति में किसी शक्तिशाली, शानदार, गौरवशाली या सुंदर व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को देखने पर प्रभु को स्मरण करना है। यह और कुछ नहीं बल्कि एक साक्षी या योगी की अवस्था है।

श्रीकृष्ण ने भगवद गीता के विभूति योग नामक दसवें अध्याय का समापन करते हुए कहा, "किन्तु इस प्रकार के विस्तृत ज्ञान की क्या आवश्यकता हैं। मैं तो अपने एक अंश मात्र से सम्पूर्ण जगत में व्याप्त होकर इसे धारण करता हूँ" (10.42) उनका एक छोटा सा हिस्सा ही हम अपने ब्रह्मांड के रूप में देखते हैं। यह अनेक ब्रह्माण्डों (मल्टीवर्स) की आज की वैज्ञानिक समझ की ओर इशारा करता है जहां हम एक ब्रह्मांड में रहते हैं जो भौतिक नियमों के एक समुच्चय का पालन करता है और अन्य सारे ब्रह्मांड अलग नियमों के समुच्चय का पालन करते हैं।

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