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Showing posts from October, 2025

192. ‘वह’ हैं भी और नहीं भी

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  जीवित रहने के लिए जिज्ञासा आवश्यक है। वर्त्तमान के संदर्भ में , अपने व्यावसायिक और व्यक्तिगत जीवन में अद्यतन ( up-to-date) रहने की उम्मीद की जाती है। अर्जुन प्रश्न करते हैं कि क्या जानने योग्य है (13.1) । इसके बारे में , श्रीकृष्ण ने पहले उल्लेख किया था कि " जब ' उसे ' जान लेते हैं तो जानने के लिए कुछ भी नहीं बचता " (7.2) ।   श्रीकृष्ण कहते हैं , " जो जाननेयोग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है उसको भलीभांति कहूंगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत् ही कहा जाता है न असत् ही (13.13) । वह सब ओर हाथ - पैर वाला , सब ओर नेत्र , सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है ; क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है (13.14) । वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है , परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण - पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगनेवाला...

191. आध्यात्मिक होना

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  ज्ञान के बारे में अर्जुन के अनुरोध के जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं , " विनम्रता , दम्भहीनता , अहिंसा , क्षमा , मन - वाणी आदि की सरलता , गुरु की सेवा , पवित्रता , दृढ़ता , आत्मसंयम (13.8) ; इंद्रिय विषयों के प्रति वैराग्य , अहंकार रहित होना , जन्म , रोग , बुढ़ापा और मृत्यु के दोषों की अनुभूति (13.9) ; अनासक्ति , सन्तान , स्त्री , घर या धन आदि वस्तुओं की ममता से मुक्ति , प्रिय और अप्रिय प्राप्ति में सदा ही शाश्वत समभाव , ज्ञान है " (13.10) ।   श्रीकृष्ण आगे कहते हैं , " मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति , एकान्त स्थानों पर रहने की इच्छा , लौकिक समुदाय के प्रति विमुखता (13.11) ; आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और परम सत्य की तात्त्विक खोज , इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और जो भी इसके विपरीत है वह अज्ञान है ” (13.12) । इनमें से कुछ स्वयं के बारे में हैं और बाकी बाहरी दुनिया के साथ हमारे संबंधों के बारे में हैं। ' मेरे जैसा कोई नहीं ' की मनोदशा से ग्रस...

190. क्षेत्र की विशेषताएं

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  श्रीकृष्ण भौतिक शरीर को क्षेत्र के रूप में संदर्भित करते हैं और इसकी विशेषताएं और इसके कारण और प्रभाव ( विकार ) के बारे संक्षेप में बताते हैं ; तथा क्षेत्रज्ञ ( क्षेत्र का ज्ञाता ) और उनकी शक्तियों के बारे में भी बताते हैं। वह आगाह करते हैं कि इनका वर्णन विभिन्न ऋषियों द्वारा और कई आध्यात्मिक ग्रंथों में कई तरह से किया गया है (13.4 और 13.5) । एक महत्वपूर्ण बात यह है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन विभिन्न ऋषियों और ग्रंथों द्वारा अलग - अलग तरीकों से किया गया है। यह एक गम्भीर समस्या है जहाँ सत्य का वर्णन अलग - अलग लोगों द्वारा अलग - अलग भाषाओं में अलग - अलग तरीकों से किया गया है जिससे हमें समझने में कठिनाई आती है। श्रीकृष्ण शब्दों के मायाजाल में न खोने के लिए कहते हैं।   श्रीकृष्ण कहते हैं , " पाँच महाभूत , अहंकार , बुद्धि और मूल प्रकृति , दस इन्द्रियां और मन , इन्द्रियों के पाँच विषय (13.6) ; इच्छा , घृणा , सुख , दुःख , स्थूल देह का पिंड...