66. समर्पण या संघर्ष
जीने के दो तरीके हैं। एक है समर्पण और दूसरा संघर्ष। समर्पण युद्ध में पराजितों के समर्पण की तरह असहाय समर्पण नहीं है , यह जागरूकता और सक्रिय स्वीकृति के साथ समर्पण है। दूसरों से आगे रहने की सोच ही संघर्ष है। जो हमें दिया गया है उससे अधिक पाने के लिए ; और हमारे पास जो कुछ है उससे अलग कुछ पाने की कोशिश ही संघर्ष है। दूसरी ओर , समर्पण हर जीवित क्षण के लिए कृतज्ञता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि , ‘‘ यदि कोई इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करता है और सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता तो उसका जीवन व्यर्थ है’’ ( 3.16) । इन्द्रियों की तृप्ति के पथ पर चल रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह संघर्ष का जीवन है , क्योंकि इन्द्रियां कभी तृप्त नहीं हो सकती। यह संघर्ष , तनाव , चिंता और दु:ख लाता है जो व्यर्थ का जीवन है। श्रीकृष्ण सृष्टिचक्र को वर्षा के उदाहरण से समझाते हैं ( 3.14) । बारिश पानी की निस्वार्थ क्रिया का रूप है जहां पानी वाष्पित होकर निस्वार्थ रूप से बारिश के रूप में बरसता है। ऐसा निस्वार्थ कर्म ही सर्वोच्च शक्ति का स्रोत है ( 3.15) । निस्वार्थ कर्मों के चक्र पर चलना ही समर्पण का