166. तुम ‘मैं’ हो

 

श्रीकृष्ण कहते हैं, "मैं सबके जन्म का कारण हूँ और मैं सर्वभक्षी मृत्यु भी हूँ। स्त्रियों के गुणों में मैं कीर्ति, समृद्धि, मधुर वाणी, स्मृति, बुद्धि, साहस और क्षमा हूँ (10.34) सामवेद के गीतों में मैं बृहत्साम हूँ और छन्दों में मैं गायत्री मन्त्र हूँ। मैं बारह मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त ऋतु हूँ (10.35) समस्त छलियों में मैं जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ। मैं विजय हूँ, संकल्पकर्ताओं का संकल्प और धर्मात्माओं का धर्म हूँ (10.36) मैं शासकों का दंड हूँ, विजय की आकांक्षा रखने वालों में उनकी उपयुक्त नीति हूँ, मैं रहस्यों में मौन हूँ और बुद्धिमानों में उनका ज्ञान हूँ" (10.38)

 वह आगे कहते हैं, "वृष्णि के वंशजों में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ और पाण्डवों में अर्जुन हूँ। समस्त मुनियों में मैं वेदव्यास और महान कवियों में शुक्राचार्य हूँ" (10.37) दिलचस्प बात यह है कि श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अर्जुन हूँ। इसे देखने का एक तरीका यह है कि वह धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। दूसरा तरीका यह है कि जब हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा के अंत में परमात्मा को पाते हैं, तो हम निश्चित रूप से उन्हें अपने भीतर ही पाते हैं। पहली बात यह कि हम अस्तित्व से अलग हो ही नहीं सकते। दूसरी बात यह है कि जितना हम स्वयं को जानते हैं, उससे बेहतर दूसरों को नहीं जान सकते। इसका मतलब यह है कि हम भगवान को स्वयं में पाते हैं और अर्जुन भी परमात्मा को पाते ही अर्जुन स्वयं श्रीकृष्ण बन जाएंगे।

 श्रीकृष्ण अपनी अनेक विभूतियों का वर्णन करते हैं जो हमारी आध्यात्मिक यात्रा में मदद करेंगे। श्रीकृष्ण एक दर्पण की तरह हैं। वह अर्जुन के विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए उस समय के सन्दर्भ में विभूतियों का वर्णन करते हैं। यदि आज श्रीकृष्ण ने गीता सुनाई होती तो विभूतियों का वर्णन अलग होता और इस तथ्य से हमें अवगत होना चाहिए बजाय किसी भी विभूति का महिमामंडन करने के। यह उस बच्चे की तरह नहीं होना चाहिए जो चंद्रमा को देखने के बजाय चंद्रमा की ओर इशारा करती हुई अपनी मां की उंगली को देख रहा है।


Comments

Popular posts from this blog

139. ‘ब्रह्म’ की अवस्था

92. स्वास के माध्यम से आनंद

34. कर्म प्राथमिक, कर्मफल नहीं